प्रभु से विमुख रहे जो प्राणि
उसकी बात न मानू
हरिद्रोही निज परम मित्र को
मित्र कभी न जानू
हरिद्रोही निज परम मित्र को
मित्र कभी न जानू
प्रभु के प्रीत सुधा सुख कारि
पल पल सकल अमंगलहारी
हरि से वेर भाव विष कैसा
विष को विष पहचानू
हरिद्रोही निज परम मित्र को
मित्र कभी न जानू
भव भय भंजन हारी भगवान
वामन के रूप में
राजा बलि के आगे
झोली फैलाए खड़े हैं
दाता याचक के द्वार खड़ा
विधि कैसी लीला दिखलाई
भगवान दान है मांग रहे
निज भक्त से झोली फैलाए
दानव गुरु शुक्राचार्य तभी
कर गए प्रवेश कमंडल में
संकल्प लगा कर नेप ली जब
जल गिरा ना उनके अंजल में
वामन ने तभी शलाका से
एक नेत्र शुक्र का फोड़ दिया
घबराकर शुक्राचार्य ने तब
जल के उस पात्र को छोड़ दिया
जल गिरते ही बलि ने अपना
संकल्प दान का पूर्ण किया
अंतर्यामी अविनाशी हरि
वामन ने रूप विराज किया
पहले पग से पृथ्वी मापी
आकाश दूसरे से मापा
रखने को तिसरा पग प्रभु ने
बलि से कुछ स्थान और मांगा
दानवेंद्र बलि ने वामन से
कहा झुकाकर अपना शीश
अब तो इसी अपावन तन को
पावन करिये हे जगदीश
बोलो वामन भगवान की जय
देवो के हित जो विराट
हरि वामन रूप धरे
वही प्रभु दुख के सागर से
सब को पार करें
विष्णु पुराण सुने जो कोई
वो भव सिंधु तरे
केशव कृपा सिंधु करुणामय
जय जगदीश हरे हरे
गाओ रे गुण गाओ हरि के
जो दुख दूर करे हरे
गाओ रे गुण गाओ हरि के
जो दुख दुर करे हरे
जय जगदीश हरे हरे
जय जगदीश हरे