हिंदू पंचांग के अनुसार ग्यारहवीं तिथि को एकादशी कहते हैं। एक महीने में दो पक्ष होने के कारण दो एकादशी होती हैं, एक शुक्ल पक्ष मे तथा दूसरी कृष्ण पक्ष मे। पूर्णिमा के बाद आने वाली एकादशी को कृष्ण पक्ष की एकादशी कहा जाता है तो अमावस्या के बाद आने वाली एकादशी को शुक्ल पक्ष की एकादशी कहते हैं।
शास्त्रों में विजया एकादशी व्रत के बारे में लिखा गया है कि इस व्रत का पालन करने से स्वर्णदान, भूमि दान, अन्न दान, और गौ दान से अधिक पुण्य मिलता है और अंत में मोक्ष की प्राप्ति होती है। यदि किसी के साथ शत्रुता है, तो विजया एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए।
शास्त्रों में एकादशी के दिन चावल और जौ का सेवन वर्जित माना गया है। पौराणिक मान्यतानुसार, माता शक्ति के क्रोध से बचने के लिए महर्षि मेधा ने शरीर का त्याग कर दिया और उनका अंश पृथ्वी में समा गया। इस दिन एकादशी तिथि ही थी। चावल और जौ के रूप में मेधा ऋषि उत्त्पन्न हुए, इसलिए चावल और जौ को जीव माना गया है। मान्यता है कि एकादशी के दिन चावल खाना, महर्षि मेधा के मांस और रक्त का सेवन करने जैसा है।
विजया एकादशी व्रत कथा
पद्म पुराण के अनुसार धर्मराज युधिष्ठिर बोले - हे कृष्ण ! फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है तथा उसकी विधि क्या है? कृपा करके आप मुझे बताइए। युधिष्ठिर महाराज जी के आग्रह पर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, “इस एकादशी का नाम विजया एकादशी है। इस व्रत का पालन करने से नि:संदेह विजय की प्राप्ति होती है तथा यह सब व्रतों से उत्तम व्रत है। इस विजया एकादशी के महात्म्य के श्रवण व पठन से समस्त पाप नाश को प्राप्त हो जाते हैं। ”
एक बार नारद जी ने ब्रह्मा जी से प्रश्न किया था, “हे देवश्रेष्ठ! फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष की विजया एकादशी की महिमा हमें सुनाएं।” नारद जी की जिज्ञासा का उत्तर देते हुए ब्रह्मा जी ने कहा नारद जी! ये प्राचीन व्रत बड़ा पवित्र तथा पाप नाशकारी है। सच तो यह है कि यह व्रत अपने नाम के अनुसार व्रत पालनकारी को विजय दिलाता है।
जब मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामचंद्र जी अपने पिताजी की आज्ञा का पालन करने हेतु चौदह वर्ष के लिए भाई लक्ष्मण एवं पत्नी सीता जी के साथ वन को गए तब उन्होंने गोदावरी नदी के तट पर पंचवटी नाम के एक सुदंर वन में निवास किया। वहीं पर राक्षसराज रावण, सीता जी को अपहरण करके ले गया था। सीता जी के विरह में भगवान श्रीरामचंद्र जी अत्यंत विरह ब्याकुल हो गए और वन-वन में सीता जी की खोज करने लगे।
उसी समय मरणोंमुखी पक्षीराज जटायु का भगवान श्रीरामचंद्र जी से मिलन हुआ। जटायु ने सीता हरण की सारी घटना प्रभु श्रीराम जी को सुनाई तथा सीता हरण की सारी घटना बताकर भगवान श्रीराम जी की कृपा प्राप्त कर जटायु ने शरीर त्याग दिया और स्वर्ग लोक को चले गए।
इसके बाद भगवान श्रीराम सीताजी की खोज करते हुए ऋष्यमूक पर्वत पर गए। वहां उन्होंने वानरराज सुग्रीव से मित्रता की। सुग्रीव ने भगवान श्रीराम जी की मदद करने के उद्देश्य से अपनी सारी वानर सेना इकट्ठी की तथा माता सीता जी का पता लगाने के लिए दसों दिशाओ में वानरों को भेजा। उनमें से हनुमान जी पक्षीराज संपाति के निर्देशानुसार समुद्र को लांघ कर लंका में गए।
वहां उन्होंने अशोक वाटिका में सीता जी से भेंट की जानकी जी को विश्वास दिलाने के लिए भगवान श्रीराम जी के द्वारा दी हुई निशानी के रूप में उन्हें अंगूठी समर्पित की। उसके पश्चात लंका दहन, अक्षयकुमार वध आदि पराक्रम दिखा कर वापिस भगवान श्रीरामचंद्र जी के पास आए और भगवान श्रीराम जी को संपूर्ण वृतांत कह सुनाया।
हनुमान जी से सारी घटना सुनकर भगवान श्रीराम जी ने अपने मित्र सुग्रीव जी के साथ विचार-विमर्श करके सारी वानर सेना के साथ लंका जाने का निर्णय लिया और विशाल वानर सेना को लेकर श्रीराम जी अपने भाई लक्ष्मणजी के साथ सागर तट पर पहुंचे। चूंकि श्री राम मानव रूप में थे इसलिये वह इस गुत्थी को उसी रूप में सुलझाना चाहते थे।
उन्होंने लक्ष्मण से समुद्र पार करने का उपाय जानना चाहा वे अपने भाई लक्ष्मणजी से बोले, हे सुमित्रानंदन! बड़े-बड़े भयानक जल जंतुओ, तिमि तिमिंगल व मगरमच्छों से पूर्ण इस भयंकर विशाल समुद्र को कैसे पार करें? तो लक्ष्मण ने कहा कि हे प्रभु वैसे तो आप सर्वज्ञ हैं फिर भी यदि आप जानना ही चाहते हैं तो मुझे भी स्वयं इसका कोई उपाय नहीं सुझ रहा लेकिन यहां इस द्वीप में बकदालभ्य नाम के ऋषि रहते हैं।
यहां से लगभग दो कोस की दूरी पर ही उनका आश्रम है। हे रघुनंदन! उन्होंने ब्रह्माजी का साक्षात् दर्शन प्राप्त किया हुआ है। अत: आप उन्हीं महामना महर्षि जी से समुद्र पार जाने का उपाय पूछिए। लक्ष्मण जी की बात सुनकर भगवान श्रीरामचंद्र बकदालभ्य ऋषि के आश्रम पर गए तथा वहां जाकर उन्होंने बड़े आदर के साथ महर्षि को प्रणाम किया।
बकदालभ्य ऋषि सर्वज्ञ थे। भगवान श्रीराम का दर्शन करते ही जान गए कि ये साक्षात् भगवान हैं। रावण आदि अधार्मिक लोगों का वध और धर्म की स्थापना हेतु ये इस मृत्युलोक में प्रकट हुए हैं। तब भी औपचारिकतावश ऋषि ने पूछा हे सर्वेश्वर! हे धर्म संस्थापक श्री राम! मेरी कुटिया पर आपका शुभागमन किस कारण हुआ में आपकी क्या सेवा कर सकता हूं, आदेश कीजिए।
ऋषि की बात सुनकर भगवान श्रीराम जी ने कहा, हे ऋषिवर दुष्ट रावण को युद्ध में पराजित करके उसका वध करने के लिए मैं अपनी सैन्य वाहिनी लेकर समुद्र तट पर आया हूं। लेकिन में इस दुष्पार सुमद्र को कैसे पार करूं, उसके लिए आप कोई सुगम उपाय बताएं, इसी कारण मैं आपके पास आया हूं।भगवान श्रीराम जी की बात सुनकर ऋषि बोले, हे भगवान मैं आपको सभी व्रतों में एक उत्तम व्रत के बारे में बताऊंगा।
जिसके पालन करने से आपको अवश्य ही विजय प्राप्त होगी तथा लंका पर विजय प्राप्त करके आप विश्व में अपनी पवित्र कीर्ति स्थापित करेंगे। आप उस व्रत को बड़े प्यार और श्रद्धा से पालन करें। वह व्रत फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की विजया एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस व्रत का पालन करने से आपको समुद्र पार करने में कोई कठिनाई नहीं आएगी तथा आने वाले सभी विघ्नों का नाश हो जाएगा। इस व्रत को पालन करने का विधान सुनिए।
दशमी के दिन सोना, चांदी, तांबा अथवा मिट्टी के एक घड़ा पानी से भरकर रखें। उस पर आम के पत्ते सजा दें। इसके बाद सुदंर एवं पवित्र स्थान पर एक वेदी की स्थापना करें। सात प्रकार के अनाज रखकर इस कलश को उस वेदी पर रखें तथा उस कलश के ऊपर सोने से बनी भगवान नारायण की प्रतिमा रखें। एकादशी के दिन तुलसी, गंध, पुष्प, माला, धूप, दीप तथा नैनेद्य आदि सामग्रियों द्वारा बड़ी श्रद्धा के साथ भगवान नारायण की पूजा करें और सारा दिन व सारी रात उसी प्रतिमा के सामने बैठकर श्रीनारायण नाम का जप करते हुए जागरण करें।
द्वादशी के दिन सूर्योदय के बाद किसी पवित्र नदी अथवा जलाशय के पास जा करके कलश की यथाविधि पूजा करके किसी निष्ठावान सदाचार संपन्न ब्राह्मण को अन्न, वस्त्र व धन आदि द्रव्यों के साथ कलश को दान करें। इससे आपको अवश्य ही विजय लाभ होगी। भगवान श्रीरामचंद्रजी ने विधिनुसार पूरी सेना सहित एकादशी का उपवास रखा व्रत के प्रभाव से समुद्र ने उनको लंका जाने के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
उन सभी ने रामसेतु बनाकर समुद्र को पार किया और उसके फलस्वरूप लंका पर विजय पाई। ब्रह्माजी ने नारद जी को कहा, हे पुत्र! जो व्यक्ति विधि-विधान के साथ इस व्रत का पालन करता है, वह इस लोक में अथवा परलोक में सर्वत्र ही विजय प्राप्त कर सकता है। हे पुत्र! यह व्रत विजय दिलाने के साथ-साथ व्रतकारी के सभी पापों को भी नाश कर देता है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, अतः हे राजन! जो कोई मनुष्य विधिपूर्वक इस व्रत को करेगा, दोनों लोकों में उसकी अवश्य विजय होगी। इस कारण प्रत्येक मनुष्य को इस विजया एकादशी व्रत का पालन करना चाहिए। इस व्रत की महिमा सुनने से व पढ़ने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है।